गुरु के प्यारों, आज सुखमनी साहिब वाणी का हिंदी मैं अनुवाद व्याख्या के साथ शुरू करने जा रहे है जो शायद कई मनुष्य रूपी आत्माओ के काम आ सकता है और उन आत्माओ का भला भी हो सकता है.
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
गउड़ी सुखमनी महला ५
सलोकु ॥
आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥
सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥ १
शब्दार्थ : आदि----- -सबसे पहला ,प्रथम , जो सब का मूल है ,जड़ है। गुरए------जो सबसे बड़ा है | नमह- ----नमस्कार। जुगादि ----- जो युगों के आरम्भ से है । सतिगुरए----- जो सच्चा गुरु है , जो सतो युगों का गुरु है। स्री गुरदेवए ---- श्री गुरु जी को ।
अर्थ :- मेरी उस सब सर्वप्रथम गुरु जो सबसे बड़ा है , जो युगों से है ,जो अकाल पुरुष है को मेरा नमस्कार है। जो सबका मूल है , जड़ है, जो युगों के आरम्भ से है, ऐसे गुरु जो सत्य का गुरु है ऐसे श्री गुरु जी को मेरा
नमस्कार हो।
नमस्कार हो।
असटपदी ॥
सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥
कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥
सिमरउ जासु बिसंभर एकै ॥
नामु जपत अगनत अनेकै ॥
बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥
कीने राम नाम इक आख्यर ॥
किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥
ता की महिमा गनी न आवै ॥
कांखी एकै दरस तुहारो ॥
नानक उन संगि मोहि उधारो ॥ १ ॥
शब्दार्थ :- असटपदी ---- जिसमे आठ पदों या बंदो बाली । सिमरउ ---- मैं याद करू , मैं सिमरु। सिमरि सिमरि - ----बार -बार याद करना। कलि-- - झगड़े , परेशानिया। माहि------ मैं | मिटावउ ----- मिटाना ,दूर करना। जासु ------ जिस। बिसु्मभर ------ बिश्वभर,सारे जग का , सारी दुनिया का पालन करने बाला (बिसु्म +भर) बिसु्म -जगत +भर (पालक, पालने बाला । एकै ---- एक। अगनत - ---अनगिनत। अनेकै - ----कई बार।
सिम्रिति---- -स्मृतिया , याद करना। सुधाख्यर---- - शुद्व अक्षर। इक आख्यर ---- एकाक्षर , अकाल पुरुष। जिसु जीअ ----( जिसु )-जिसका,जिसके , ( जिअ) ----मन मैं। महिमा ---- उस्तति, बड़ाई। कांखी ---- इच्छावान, चाहवान। उधारो - ----बचाओं, बचा लो , जीवन सफल करना।
अर्थ:- मनुष्य प्रभु से प्रार्थना कर रहा है , के प्रभु मैं तेरे नाम का सिमरन , जप बार -बार करुगा , जिससे की मैं आप से सुख प्राप्त कर सकू और इस शरीर के सारे दुःख, कष्ट झगड़े दूर
हो जाये।
हो जाये।
है प्रभु आप सारे जगत के पालन हार हो , सब का ध्यान और पालन पोषण करते हो, सब जीव
आप के नाम का जप /सिमरन करते है , मैं भी आप की आराधना कर रहा हूँ।
आप के नाम का जप /सिमरन करते है , मैं भी आप की आराधना कर रहा हूँ।
मेरे प्रभु वेदो , पुराणों और स्मृतियों मैं एक आप के ही नाम (अकाल पुरुष ) को पवित्र माना गया है।
प्रभु जिस भी मनुष्य के मन मैं आप के नाम का जरा सा भी निवास होता है ,उसकी महिमा का वर्णन
नहीं किया जा सकता। है प्रभु जो मनुष्य तेरे दर्शन/ दीदार का चाहवान है उसकी सांगत मैं मुझे भी रख कर इस संसार रूपी
सागर से बच लो।
नहीं किया जा सकता। है प्रभु जो मनुष्य तेरे दर्शन/ दीदार का चाहवान है उसकी सांगत मैं मुझे भी रख कर इस संसार रूपी
सागर से बच लो।
सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥
भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ ॥
शब्दार्थ:- सुखमनी --- जो सुखो की मणि , सुखो से भरा हुआ। मनि ----- मन मैं। बिस्राम --- निवास करना, ठिकाना।
अर्थ; - है प्रभु , आप के नाम का जाप एक अमृत है जो सुखो से भरी हुई एक मणि के सामान है। जो भी भगत आप के अमृत नाम का निरंतर सिमरन करते है आप उन भगतों/जीव के मन/ह्रदयों मैं खुद निवास करते हो।
॥ रहाउ ॥ रहाउ- का मतलब रुकना , ठहरना --------गुरूजी इशारा करते है रुकने का ---मनुष्य रुक और विचार कर ------ध्यान दे --इशारे को समझ ------ क्योंकि इसी मैं तेरे जीवन का सर छिपा हुआ है।
प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥
प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥
प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥
प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥
प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥
प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै।।
प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥
प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥
प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥
सरब निधान नानक हरि रंगि ॥ २ ॥
शब्दार्थ :- सिमरनि -------सुमिरन / याद/जप करना । गरभि------गर्भ मैं , माता के पेट मैं। परहरै- ----दूर हो जाता है ,भाग जाता है। टरै ---टल जाता है। सिमरत --- याद करने से। कछु ----कोई भी। बिघनु --- मुश्किल ,रुकावट। अनदिनु ---हर वकत ,हर रोज़। जागै ---- जागना , सावधान रहना। भउ ----डर। बिआपै ------छा जाना , जोर डालना ,व्यापत होना। संतापै --- दुःख देना ,तंग करना। सरब ---- सारे ,सभी। निधान -----स्थापन ,सुरक्षित रखना। रंगि ---रंग मैं रंगना ,मगन होना ,प्यार मैं।
अर्थ:- प्रभु का सिमरन करने से मनुष्य /जीव जन्म और मरण में बार -बार नहीं आता, गर्भ की तापस से बच जाता है।
मनुष्य/जीव से जम/मौत का डर दूर हो जाता है। मौत का भय भाग जाता है। प्रभु के सिमरन से दुश्मन टल जाता है।
प्रभू का सिमरन करने से जिंदगी की राह में कोई रुकावट नहीं पड़ती, क्योंकि प्रभू का सिमरन करने से मनुष्य हर समय विकारों की तरफ से सुचेत रहता है, जागा रहता है।
प्रभू का सिमरन करने से कोई डर जीव पर प्रभाव / दबाव नहीं डाल सकता और किसी भी तरह का दुख परेशान नहीं कर सकता।
प्रभु,अकाल-पुरख का सिमरन साधु /गुरमुखि की संगति में मिलता है।
जो मनुष्य प्रभु का सिमरन करता है, उसको नानक ,अकाल पुरख के प्यार में दुनियां के सारे खजाने मिल जाते है।
प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥
प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥
प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥
प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥
प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥
प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥
प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥
प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥
से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥
नानक ता कै लागउ पाए ॥ ३ ॥
शब्दार्थ: - रिधि सिधि------ समस्त प्रकार का वैभव, मानसिक ताकतें, सब प्रकार की समृद्धि और वैभव। ततु = निचोड़, ,अस्लियत, मूल। बिनसै:- ------ दूर हो जाना , नाश होना /करना। मानी ------ इज्जत बाला , सम्मान । सुफल ---सुंदर फलों से युक्त , अच्छा परिणाम।
अर्थ :- प्रभू के सिमरन/ याद करने से ही सारी रिद्धियां-सिद्धियां ( नौ निधियों बारह सिद्धियां) सब प्रकार की समृद्धि और वैभव के खजाने की प्राप्त हो जाती हैं।
सुरति का ज्ञान और ध्यान का टिकाव, बुद्धि मैं असलियत मैं तभी ठहरता है, जब प्रभू का सिमरन किया जाता है,
जाप-ताप और पूजा का फल उसी जीव को मिलता है जो प्रभु के नाम का सिमरन करता है ,सिमरन करने बाले के मन मैं प्रभु वास करता है ,
जो प्रभु का सिमरन करता है उस जीव के आसपास अन्य शक्तियों का विनाश हो जाता, क्योंकि जहाँ प्रभु का सिमरन होता है बह प्रभु स्वयं रहते है.
जो जीव प्रभु का सिमरन करता है उसकी आत्मा का ही तीर्थ स्नान हो जाता है,
प्रभु को याद करने बाले को प्रभु की दरगाह में आदर और इज्जत मिलती है,
प्रभु का सिमरन करने बाले को हमेशा ही भला प्रतीत होता है, और
उस जीव को जीवन मैं शुभ फलो की प्राप्ति होती है, यानी उसका जीवन खुशियों से भरा रहता है,
उस मानव के जन्म लेने का मनोरथ सफल हो जाता है।
प्रभु के नाम का सिमरन वहीं कर सकते हैं, जिन्हें प्रभू स्वयं प्रेरित करते है,
इसलिए कह रहे है नानक मैं उन (सिमरन करने वालों) के पैर छूना चाहता हूँ || 3 ||
प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥
प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥
प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥
प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥
प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥
प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥
प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥
अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥
प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥
नानक जन का दासनि दसना ॥ ४ ॥
शब्दार्थ : -उधरे -----विकारो , बुराई, मन की वृत्ति , अवगुण से बचना। मूचा ----बहुत बड़ा , ऊँचा होना। त्रिसना---- प्यास ,तीव्र इच्छ। बुझै ----बुझ जाना , समाप्त होना ,खत्म होन। सुझै---समझ मैं आ जाना। जम त्रासा--- मौत, यमो का डर/ भय। मलु जाइ ----मन के विकार, मेल ,गंदगी का खत्म होना। रिद माहि ---- मन मैं वास करना , समाना । रसना----जीभा ,जुवान। दासनि दसना------दासों का दास, चाकर, सवको का सेवक,।
अर्थ:- प्रभु का ध्यान करना, सिमरन करना सबसे महान, ऊँचा है, शुभ है, भला करने बाला है, कल्याण करने बाला है।
प्रभु का सिमरन करने से जीव अनेको बड़ी से बड़ी विकारो, बुराई, मन की वृत्तियों, अवगुण से बच जाता है।
प्रभु के नाम सिमरन से जीव को तृष्णाओं, तीव्र इच्छो और माया के जंजालो से छुटकारा मिल जाता है क्योंकि सिमरन से उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रभु को सिमरन करने से यमों का /मौत का डर दूर हो जाता है।
प्रभु के सिमरन से सारि इच्छये पूर्ण होती है , मन के विकार, मेल, खत्म हों जाते है , जब प्रभु के अमृत नाम का वास जीव के ह्रदये /मन मैं आ जाता है।
परमात्मा /प्रभु साधुओं की जीभा पर वास करते है, क्योंकि साधु /ज्ञानी हमेशा प्रभु का सिमरन करते रहते है ,इसलिये है नानक ऐसे प्रभु के भगतों के सेवकों का सेवक ही बना दो।
प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥
प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥
प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥
प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥
प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥
प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥
सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥
नानक जन की मंगै रवाल।। ५।।
शब्दार्थ: - पतिवंते ---- पूजनीय,आदरणीय ,विलक्षण व्यक्ति। परवान------मंज़ूर करना; कबूल करना,स्वीकारना। पुरख---- पुरुष , मनुष्य ,जीव। प्रधान ---------नेता; मुखिया; सरदार। सि----जीव ,मनुष्य। बेमुहताजे -----बेपरवाह ,मुहताज होना। अबिनासी -----नाशरहित,अविभाजित। आपि---- खुद ,स्वयं। रवाल-----चरणों की धूल।
अर्थ :- जो जीव प्रभु का सिमरन करते है वे हर तरह से धनवान होते है ,चाहे ,धन से हो ,ज्ञान से हो , जीवन के सुखो से हो।
प्रभु का सिमरन करने बाला जीव,आदरणीय और प्यारे होते है। प्रभु का सिमरन करने बाले को सभी प्यार करते है , स्वीकार करते है , काबुल करते है, और उस जीव को श्रेष्ठ और उत्तम माना जाता है।
प्रभु को याद रखने वाला मनुष्य हमेश बेपरवाह होता है किसी का मोहताज नहीं होता।
प्रभु का सिमरन करने वाल जीव हमेश ही एक राजे की तरह रहता है वह किसी पर निर्भर नहीं रहता। यह देखा गया है की प्रभु को मानने बाला ,याद करने वाले जीव -सुखो से भरपूर रहता है ,वह संसार के आवागमन/जन्म-मरण के फेर से मुक्त हो जाता है।
प्रभु का सिमरन वही जीव कर सकता है जिस पर प्रभु की कृपा होती है। है नानक मैं भी प्रभु के भगतों /गुरमुखों के चरणों की धूल चाहता हूँ जिस से मेरा भी कल्याण हो जाये।
प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥
प्रभ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥
प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥
प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥
संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥
नानक सिमरनु पूरै भागि ॥ ६ ॥
शब्दार्थ:- परउपकारी ----सबका भला करने बाल, सोचने बाला। तिन----उन पर, उनसे । बलिहारी ----न्यौछावर होना, कुर्बान होना। मुख------चेहर, मुँह। सुहावे------मधुर, मीठा, सुन्दर। बिहावै ---बिताना, गुजारना,व्यतीत करना। आतमु-------खुद को ,स्वयं को। जीता-----जीतना, वश में करना (मन या इंद्रियों आदि को)। निरमल -----कोमल, पवित्र, जिसमें किसी प्रकार का मल या दोष न हो, मलिनता न हो। स्वच्छ, व हृदय जिसमें दूषित या बुरी भावनाएँ न हों। रीता--------जीवन जीने का ढंग। अनद------सुख,आनंद। घनेरे-------अनेक,बहुत ,अपार, अत्यन्त, असंख्य। बसहि----- रहना ,बसना। नेरे------- नजदीक,पास ,समीप। अनदिनु-----हर रोज ,रोज़ाना। जागि------जागन, प्रकाश होना, जागरूक होना । पूरै ---- पूरी तरह से। भागि --- - किस्मत ,भाग्य।
अर्थ:- जो जीव प्रभु को याद रखते है, उसका सिमरन करते है वह जीव सब का भला करने बाले बन जाते है और भलाई करते है, उन पर प्रभु हमेश ही न्यौछावर और कुर्बान रहता है।
जो प्रभु का सिमरन करते है उनके चेहरे पर एक नूर और सुंदरता रहती है और उनका जीवन सुखो से व्यतीत होता है।
प्रभु का सिमरन करने बाले खुद को ,स्वयं को जीत लेते है (मन या इंद्रियों आदि को)। उन जीव के जीने की राह/ढंग पवित्र हो जाता है (हृदय जिसमें दूषित या बुरी भावनाएँ नहीं रहती ) । ऐसे जीव/मनुष्य का जीवन अनगिनत ,अपार, अत्यन्त आनन्दो और , खुशियों से भरा रहता है। वह जीव प्रभु के निकट /पास ही रहते है।
प्रभु और गुरमुखों / संतो की कृपा से ही अंदर का प्रकाश उत्पन होता है। ऐसी कृपा बड़े भाग्य से मिलती है।
प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥
प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥
प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥
प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥
प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥
प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥
प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥
सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥
सिमरहि से जन जन कउ प्रभ मइआ ॥
नानक तिन जन सरनी पइआ ॥ ७ ॥
शब्दार्थ:-कारज-----कार्य। कबहु --- कभी नहीं। झूरे ------ चिंता, दुःख, कष्ट। गुन बानी------ गुणों से भरी हुई हरी की वाणी।
सहजि------- सहज, स्वाभाविकता; सरलता, साधारणता। समानी--------किसी मैं समा जाना, लीन होजाना। निहचल-----स्थिर, जिसका चित्त या मन स्थिर या दृढ़ हो, उत्तेजित न होने वाला, शांत। आसनु ------बैठने की निश्चित मुद्रा, बैठना, बैठने का आधार। बिगासनु---- -खिला हुआ, खिलना। अनहद------ लगातार, समाधि की स्थिति में सुनाई पड़ने वाला ना। झुनकार-----मीठीसी और रसीली सी धुन। अंतु-----जिस का कोई किनारा/सीमा ना हो। मइआ------दया, कृपा।
अर्थ:- प्रभु सिमरन से जीव के सारे कार्य पूर्ण हो जाते है, सिमरन करने बाले को कोई दुःख, कष्ट और चिंता कभी नहीं सताती।
जो जीव लगातार प्रभु के गुणों से भरी हुई वाणी का सिमरन करता रहता है, वह सहज अवस्था मैं लीन हो जाता है।
प्रभु के सिमरन से हीजीव का चित्त/ मन का आसन शांतऔर स्थिर अवस्था मैं आ कर ह्रदये रूपी कमल खिल जाता है। सिमरन से ही मनुष्य के अंदर लगातार चल रही अनहद धुन सुनी जा सकती है, जिसका कोई भी अंत नहीं है।
जिन जीवो पर प्रभु की कृपा होती है वही सिमरन करपाते है। कोई प्रभु का प्यारा ही उन गुरमुखों,संतो की शरण मैं आते है।
हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥
हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥
हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥
हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥
हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥
सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥
हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥
हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥
करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥
नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥ ८ ॥ १
शब्दार्थ :- लगि-----जुड़कर,समाना। उपाए ------जन्म देना ,पैदा करना , खोज करना। भए---------होना ,हो गये। सिध-----मंजिल तक पहुंचना ,प्राप्त करना जाते , सिद्धि प्राप्त करना। जती दाते-------शारीरक इन्द्रियों को काबू करने बाला। चहु कुंट---- चारो दिशओं मैं , सारे जगत मैं। जाते-----मशहूर होना ,विख्यात होना। धारी ----धारण करने वाला। धरना--- मन को सब ओर से हटाकर निर्विकार, शांत और स्थिर किया जाना। कारन करना------ मूल कारण । अकारा------नजर आने बाला जगत। निरंकारा----- जिस का कोई भी आकर ना हो। जिसु------ जिसे। बुझाइआ-----------समझाना।
अर्थ :- केवल हरी /प्रभु का सिमरन करने से ही भगतो का जन्म होता है उनकी पहचान होती है , सिमरन से ही उनकी चर्चा जगत मैं होती है।
जब साधु,ऋषि मुनि सिमरन मैं लीन होते है तभी बेदो और धर्म ग्रंथो की रचना होती है।
हरी सिमरन के द्वारा ही शारीरक इन्द्रियों को काबू किया जा सकता है और जीवन की सिद्धियों की प्राप्ति कर के चारो दिशओं मैं विख्याति प्राप्त कर सकते है।
हरी सिमरन को धारण करके जीव मन को सब ओर से हटाकर निर्विकार, शांत और स्थिर कर सकता है। मूल कारण हरी का सिमरन करना ही है और सिमरन करने से ही इस नजर आने बाले जगत की असलियत को पहचान सकेंगे।
इस सिमरन मैं ही निरंकार प्रभु स्वयं विराजमान होता है। जिस जीव को प्रभु स्वयं सिमरन करने की समझ देता है उस गुरमुख का तो जीवन ही सफल हो जाता है।
आप जी के चरणों मैं हाथ जोड़ के बेनती हैं आगर किसी भी तरह की कोई गलती /त्रुटि हो तो क्षमा करना और अपनी कीमती रायै जरूर देना जी।